Thursday 27 February 2014

हत्यारों पर रहम कैसी देशभक्ति है

अरविंद जयतिलक
सर्वोच्च अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई पर रोक लगाकर तमिलनाडु सरकार की कुत्सित राजनीति पर पानी फेर दिया है। अदालत ने रिहाई के खिलाफ दाखिल केंद्र सरकार की अर्जी पर सुनवाई करते हुए जयललिता सरकार को ताकीद किया है कि वह रिहाई के मामले में यथास्थिति बनाए रखे। बता दें कि सर्वोच्च अदालत द्वारा दया याचिका निपटाने में देरी के आधार पर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के तीन हत्यारों मुरुगन, सांतन और पेरारिवलन की फांसी उम्रकैद में तब्दील किए जाने के एक दिन बाद ही तमिलनाडु सरकार ने वोटयुक्ति की लालसा में सभी हत्यारों को रिहा करने का निर्णय लिया और सारे नियमों को दरकिनार कर केंद्र सरकार को पत्र भी लिख डाला कि वह तीन के दिन भीतर हत्यारों की रिहाई की मंजूरी दे अन्यथा राज्य सरकार खुद रिहाई का आदेष दे देगी। गौरतलब है कि इस विशम स्थिति से निपटने के लिए केंद्र की ओर से उच्चतम न्यायालय में सॉलिसिटर जनरल मोहन परासर ने रिहाई पर रोक लगाने का अनुरोध किया। इस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि चूंकि दोशियों को षस्त्र अधिनियम व विस्फोटक अधिनियम जैसे केंद्रीय कानूनों में सजा सुनायी गयी है लिहाजा इन मामलों में माफी का अधिकार राज्य को नहीं है। इस पर सिर्फ केंद्र ही फैसला कर सकता है। 

अदालत ने स्पश्ट कहा है कि मौत की सजा उम्रकैद में तब्दील होने का मतलब दोशियों की रिहाई नहीं है। लेकिन कहते हैं न कि राजनीति मौके की मोहताज होती है और सियासतदान इससे चुकते नहीं हैं। जयललिता सरकार ने भी कुछ ऐसा ही किया। बहरहाल वह अपने निर्णय को अमलीजामा पहनाती इससे पहले ही सर्वोच्च अदालत ने उसके हाथ-पांव बांध दिए। सच तो यह है कि अदालत न हो तो सरकारें निरंकुष होकर कब राश्ट्रीय हितों को बलि चढ़ा दे, पता ही न चले। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जहां आतंकवाद जैसे संगीन मसले पर तमिलनाडु सरकार को धैर्य व संवेदना का परिचय देना चाहिए वह घृणित राजनीति पर उतारु है। उसका कृत्य रेखांकित करता है वह वोटयुक्ति के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। अगर सर्वोच्च अदालत द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया गया जाता तो निष्चय ही वह हत्यारों की रिहाई हो जाती और यह अनर्थ ही नहीं होता बल्कि एक किस्म से हत्या और हत्यारों का महिमामंडन भी होता। यह देष के लिए लज्जाजनक है कि पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारे न केवल मौत की सजा से बच निकले बल्कि अब उनकी रिहाई के भी प्रयास हो रहे हैं। लेकिन इसके लिए सिर्फ जयललिता ही अकेली दोशी नहीं हैं। कांग्रेस पार्टी भी बराबर की गुनाहगाार है। एक अरसे से केंद्र में उसकी सरकार है लेकिन षायद ही कभी देखा गया हो कि वह दया याचिकाओं को निपटाने को लेकर गंभीर रही हो। विपक्ष जब भी आतंकवाद से जुड़े आतंकियों के दया याचिकाओं को षीध्र निपटाने को लेकर अपना कड़ा रुख अख्तियार किया कांग्रेस पार्टी राजीव गांधी के हत्यारों की दया याचिका का बहाना बनाकर अपना बचाव करती रही।

आखिर इसे उचित कैसे ठहराया जा सकता है। लेकिन चूंकि इस खेल में कांग्रेस का राजनीति सधता था इसलिए गलत नहीं माना। अब वह राग-प्रलाप कर तमिलनाडु सरकार के निर्णय की भर्त्सना कर रही है तो यह भी एक किस्म से सियासत ही है। सच तो यह है कि अगर वह पहले ही इस मसले पर अपनी सक्रियता दिखायी होती और दया याचिकाओं का निपटारा के प्रयास तेज किए होते तो आज हत्यारे फांसी से बच नहीं निकलते और न ही जयललिता को उनकी रिहाई का मौका मिलता। राहुल गांधी का यह कहना सही हो सकता है कि यदि कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री की हत्या करे और रिहा कर दिया जाए तो किसी आम आदमी को इंसाफ कैसे मिलेगा? लेकिन भोथरे हो चुके इस दलील का उत्तर उन्हें अपनी पार्टी के अंदर ही ढुंढना चाहिए। इसलिए कि इसका उत्तर कांग्रेस के सियासत में ही छिपा है। देष-दुनिया को अच्छी तरह पता है कि इस मसले पर कांग्रेस ने कम सियासत नहीं की है। देष यह भी देख चुका है कि वह वोटयुक्ति और सत्ता को बचाने के लिए किस तरह जयललिता और एम करुणानिधि के आगे नतमस्तक रही। किस तरह सोनिया गांधी ने राजीव गांधी की हत्या में षामिल नलिनी की फांसी को उम्रकैद में बदलवाया और प्रियंका गांधी उनसे मुलाकात की क्या किसी से छिपा है? क्या यह सच नहीं है कि कांग्रेस ने 1997 में गुजराल सरकार से सिर्फ इसलिए समर्थन वापस ले लिया कि जैन आयोग ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट डीएमके पर आरोप लगाया था कि उसने लिट्टे को संरक्षण दी? देष जानना चाहेगा कि फिर कांग्रेस ने 2004 में डीएमके के सहयोग से सरकार का गठन क्यों किया? उचित होगा कि राहुल गांधी अपनी पार्टी और सरकार से सवाल करें कि उनके पिता और पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों की दया याचिका को निपटाने में एक दषक से अधिक समय क्यों लगा? क्या वजह है कि कांग्रेस की दिलचस्पी राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दिलाने के बजाए अपनी सत्ता बचाने में रही? तमिल मसले पर जिस तरह कांग्रेस इन दोनों दलों के आगे घुटने टेकती रही उसी का कुपरिणाम है कि आज इस मसले पर कुत्सित सियासत हो रही है। 

यह हकीकत है कि अगर मुख्यमंत्री जयललिता पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों को रिहा करने के लिए आगे नहीं आती तो एम करुणानिधि इस मसले पर हत्यारों के साथ होते और राजनीतिक बवंडर खड़ा करते। वैसे भी जयललिता के फैसले पर सहमत होकर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि दोनों की सोच में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। देखा भी जा चुका है कि श्रीलंका में तमिलों के उत्पीड़न को लेकर संयुक्त राश्ट्र मानवाधिकार परिशद में अमेरिका द्वारा लाए जा रहे प्रस्ताव पर किस तरह उन्होंने मनमोहन सरकार को बंधक बनाकर घुटने टेकने पर मजबूर किया। अब जब उच्चतम न्यायालय ने हत्यारों की फांसी को उम्रकैद में तब्दील कर दिया है और जयललिता राजनीतिक लाभ के लिए उनकी रिहाई की कोषिष कर रही हैं तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ट्वीट कर कह रहे हैं कि हमारे पूर्व प्रधानमंत्री और मासूम भारतवासियों के नेता के सात हत्यारों की रिहाई न्याय के सभी मूल्यों के खिलाफ होगी। यह रुदन गान ठीक नहीं। यह देष को भरमाने जैसा ही है। आतंकवाद पर उनकी सरकार की घुटनेटेक नीति का ही दुश्परिणाम है कि आज देष आतंकवाद की आग में झुलस रहा है और सियासतदान घृणित राजनीति पर उतारु हैं। उचित होगा कि सरकार आतंकवाद के खिलाफ अपने अभियान को तेज करे और सभी राजनीतिक दल मिलकर दया याचिकाओं को षीध्र निपटाने का रोडमैप तैयार करें। यह उचित नहीं है कि कोई हत्यारा दो-ढाई दषक तक कारावास का दंड भोगे और फिर उसे मौत की सजा दी जाए। यह मानवता के खिलाफ होगा। लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं किी इसकी आड़ में कोई राजनीतिक दल वोटयुक्ति का घिनौना खेल खेले। आखिर यह किस तरह राश्ट्रभक्ति का पर्याय हो सकता है? 

No comments: