Sunday 23 February 2014

संवैधानिक दायरें में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो

राजीव गुप्ता
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने विचारों व भावनाओं को व्यक्त करने का राजनैतिक अधिकार है. इस अधिकार के तहत कोई भी व्यक्ति बिना किसी रोकटोक के अपने विचारों,भावनाओं व सूचना का आदान-प्रदान कर सकता है. परंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के चलते उसके द्वारा किसी को शारीरिक, आर्थिक तथा धार्मिक भावनाओं को ठेस नही पहुँचाया जा सकता. व्यवहारिक रूप से यह स्वतंत्रता कभी भी किसी भी देश में निरपेक्ष स्वतंत्रता के रूप नही दी जा सकती है. अतरू प्रत्येक देश में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में सदैव कुछ न कुछ सीमाएँ जरूर बना दी जाती हैं. दिसंबर2012को अमेरिकी शहर फ्रांसिस्को में सार्वजनिक जगहों पर निर्वस्त्र होने पर रोक लगा दिया गया था. उस समय वहाँ भी नागरिक संगठन और सरकार आमने-सामने आ गए थे तो वर्जीनिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर फ्रेडरिक शाउर ने कहा कि वहाँ के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सार्वजनिक जगहों पर निर्वस्त्र होने पर पाबंदी संवैधानिक है. इसी तरह से बीडी, सिगरेट, शराब, जैसे नशीले पदार्थों का सेवन तो अपने घर में किया जा सकता है परंतु सिनेमाघरों इत्यादि जैसे सार्वजनिक स्थानों पर इन नशीले पदार्थों का सेवन कानूनन जुर्म है. इसलिए संयुक्त राष्ट्र की सार्वभौमिक मानवाधिकारों के घोषणा पत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के साथदृसाथ नागरिकों को विशेष दायित्व भी सौंपा गया है. एक प्रचीन कहावत भी है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता वहीं खत्म हो जाती है,जहाँ से दूसरे की नाक शुरू होती है.
दरअसल इन दिनों भारत के अंग्रेजी अखबारों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर जबर्दस्त होदृहल्ला मचा हुआ है. मामला है शिकागो विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत वेंडी डोनेगर ने ‘द हिन्दूज एन आल्टरनेटिव हिस्ट्री’ नामक एक विवादास्पद किताब लिखा जिसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रकाशक पेंग्विन ने छापा. उस पुस्तक में वेंडी डोनेगर लिखती हैं कि हिन्दू देवी-देवता कामुकता के शिकार हैं,शिवलिंग का वर्णन व्यवहारिक रूप से कामुकतापूर्ण है,यमी अपने भाई यम के साथ यौनाचार का असफल प्रयास करती है,सीता व लक्ष्मण के बीच कामुकता कामुकता के संबंध बताने का असफल प्रयास किया है, सूर्य ने कुंती से बलात्कार किया,स्वामी विवेकानन्द ने अपने शिकागो भाषण के दौरान श्रोताओं को गोमांस खाने का आग्रह किया,महात्मा गांधी युवा लडकियों के साथ सोते थे, मंगल पांडे शराब,अफीम,भांग के नशे में डूबे रहते थे, झांसी रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेज भक्त थी,इत्यादि. जिस पर शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति ने घोर आपत्ति जताई और वर्ष 2010 में दिल्ली के हौजखास थाने में लेखिका वेंडी डोनेगर,पेंग्विन ग्रुप (यूएसए) तथा पेंग्विन बुक्स इंडिया प्राईवेट लिमिटेड के खिलाफ एफ.आई.आर दर्ज करवाया तथा वर्ष 2011 में दिल्ली के साकेत अदालत में एक केस दायर कर दिया. सितंबर 2012 तक साकेत अदालत के माध्यम से लेखिका वेंडी डोनेगर तथा पेंग्विन ग्रुप (यूएसए) से संपर्क साधने का भरपूर प्रयास किया गया. यहाँ तक कि लेखिका वेंडी डोनेगर के निवास से रिपोर्ट लेने को भी मना कर दिया गया. अंततरू 10 फरवरी 2014 को सिविल सूट नं. 360, 2011 के तहत पेंग्विन बुक्स इंडिया प्राईवेट लिमिटेड और शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति के बीच एक अनुबन्ध हुआ. यह अनुबंध श्री बलबंत राय बंसलए.डी.जेकोर्ट नं. 615 के न्यायालय में प्रस्तुत किया गया. माननीय न्यायधीश ने इसे स्वीकृति प्रदान की. इस अनुबन्ध के अनुसार पेंग्विन बुक्स इंडिया प्राईवेट लिमिटेड ने तत्काल प्रभाव सेवेंडी डोनेगर की पुस्तक‘द हिन्दूज एन आल्टरनेटिव हिस्ट्री’को तत्काल वापस ले लिया है तथा उसके द्वारा अपने खर्च पर सम्पूर्ण पुस्तकें देश से एकत्रित कराकर उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा. साथ ही पेंग्विन बुक्स इंडिया प्राईवेट लिमिटेड की ओर से कहा गया कि वें सब धर्मों का सम्मान करते है. अतः वें इस पुस्तक को वापस ले रहे है. अब यह पुस्तक न आगे से छापी जाएगी और बची हुई पुस्तकों को बेचा नहीं जाएगा.
पेंग्विन बुक्स इंडिया प्राईवेट लिमिटेड के इस निर्णय पर देश के कुछ प्रबुद्ध-जनों ने नकारात्मक टिप्पणी करते हुए इसे‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला’से जोड दिया. शायद ही अंग्रेजी का कोई ऐसा अखबार हो जिसने लेखिका वेंडी डोनेगर के पक्ष में आंसू न बहाया हो. इतना ही नही भारत के कुछ प्रबुद्ध-जन विश्वविख्यात प्रकाशक की कायरता मानने में भी कोई कोताही नही बरत रहें हैं. परंतु सच्चाई यह है कि गत चार वर्षों से विश्वविख्यात प्रकाशक पेंग्विन ने भी सारे कानून दांव-पेंच अजमा लिये थे और जब उसे यह पूर्णतया विश्वास हो गया कि इस मामले में शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति द्वारा उठाई गई तथ्यात्मक-आपत्तियों तथा लेखिका की अनर्गल व्याख्याओं के चलते अदालत में वें हार जायेंगे तो पेंग्विन के अधिकारियों ने समझदारी दिखाते हुए यह अनुबन्ध करना ही उचित समझा. भारत एक लोकतांत्रिक देश है. परस्पर संवाद ही लोकतंत्र को मजबूत बनाता है. इसलिए भारतीय संविधान के तहत लोकतांत्रिक तरीके से शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति ने अपना विरोध जताया और इस पूरे मसले पर कानूनी जंग में विजय हासिल किया. परंतु ऐसे प्रबुद्धदृजनों को अपना आत्म-निरीक्षण अवश्य करना चाहिए कि आखिर उनका यह कैसा उदारवाद है जो लेखिका तस्लीमा नसरीन को कोलकाता में रहने की अनुमति नही मिलने पर शांत रहता है. भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि हिन्दू-धर्म एक जीवन पद्धति है लेकिन जब उस हिन्दू-धर्म को मानने वालों की भावनाओं पर लेखिका वेंडी डोनेगर द्वारा इस तरह की अनर्गल बातें लिखकर साहित्यिक हमला किया जाय तो वह उदारीकरण हो जाता है परंतु जब शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति की तरफ लोकतांत्रिक तरीके से अपना विरोध जताया जाय तो उसे तालिबानीकारण,भगवाकरण के संज्ञा से अलंकृत किया जाता है. आखिर यह दोहरा मापदंड क्यो? क्या भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से विरोध जताना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है?संविधान की किस व्यवस्था के तहत किसी भी मत-पंथ को मानने वालों की भावनाओं पर किसी भी लेखक-लेखिका को प्रहार करने का अधिकार दिया गया?वैसे देश में किसी पुस्तक पर‘प्रतिबन्ध’लगाने यह कोई पहला मामला नही है. वर्ष 1924 से लेकर आजतक कई कारणों से भारत के अलग-अलग हिस्से में अनेक पुस्तकें प्रतिबन्धित हैं. मैकेल एडवर्ड की पुस्तक नेहरूदृए पोलिटिकल बायोग्राफी, चार्ल्स बेटल्हिम की पुस्तक-इंडिया इंडिपेडेंट, जसवंत सिंह की पुस्तकदृजिन्ना रू इण्डिया पार्टिशन इंडिपेंडेंस, जोसेफ लेलेवेल्ड की पुस्तकदृग्रेट सोल रू महात्मा गांधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया सहित भारतीय इतिहासकार डी.एन.झा की पुस्तक ‘होली काऊरू बीफ इन इंडियन डैयट्री ट्रेडिशन’ जैसी कई पुस्तकों पर प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है. फिर लेखिका वेंडी डोनेगर की पुस्तक पर पेंग्विन प्रकाशक के द्वारा किए गए अनुबन्ध पर इतनी हाय-तौबा क्यों?संसार में शौच जैसी प्राकृतिक कर्म को भला कौन नकार सकता है. परंतु जब यह सार्वजनिक रूप से खुलेआम किया जाए तो दूसरे की स्वतंत्रता का हनन होता ही है. 
संविधान में मौलिक अधिकार संबंधी भाग में जो स्वतंत्रता के अधिकार दिए गए हैं इसमें व्यक्ति के विचारों की अभिव्यक्ति प्रमुख है. लेकिन ध्यान रखने की बात यह है कि संविधान में जितने मौलिक अधिकार दिए गए हैं, उनमे से कोई भी अधिकार ‘असीमित’ नही है. सभी अधिकारों पर कुछ न कुछ सीमाएँ हैं. वस्तुतरू संविधान की अगर परिभाषा की जाए तो हम पायेगें कि संविधान स्वयं सीमाएँ लगाता है. अगर संविधान के बिना यह कहा जाए कि यहाँ रहने वाले सभी लोग स्वतंत्र है तो इसका अर्थ यह होगा कि वें सभी लोग ‘कुछ भी करने के लिए’ स्वतंत्र हैं और इनकी स्वतंत्रता पर कोई सीमा ही नही है. इस हालत में तो अराजकता की स्थिति हो जाएगी. जिस प्रकार नदी की विकरालता को उस पर बाँध बनाकर उसे संयमित किया जाता है इसी प्रकार संविधान एक ‘सेतु’ का काम करता है. अतरू हम कह सकते हैं कि संविधान की संप्रभुता को परिसीमित करने हेतु संविधान होता है. संविधान का अर्थ ही ‘सीमाएँ’ होता है. इसी कारण से संविधान के सभी अंगो के अलग-अलग कार्यक्षेत्र विभाजित हैं और उन पर संविधान की सीमाएँ लागू होती हैं. दूसरी बात जहाँ तक विचारों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न है तो हमे यह ध्यान रखना चाहिए कि जो अधिकार एक व्यक्ति का है वही अधिकार दूसरे व्यक्ति का भी है. अर्थात यहाँ पर एक सीमा यह लग गई कि आपको अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और दूसरे को भी उसके विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. अतरू आपको अपने विचारों को प्रकट करते हुए दूसरे के विचारों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ध्यान रखना पडेगा. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आपकी स्वतंत्रता दूसरे की स्वतंत्रता से सीमित है. संविधान में यह भी कहा गया कि व्यक्ति की स्वतंत्रता पर राष्ट्रहित, देश-सुरक्षा, नैतिक मूल्यों पर, मित्र देशों के साथ संबंधों पर इत्यादि कारणों से सीमाएँ लगाई जा सकती हैं.अतरू इन प्रबुद्ध-जनों को स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता के मध्य की महीन रेखा को समझते हुए संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का निष्पक्ष रूप से व्याख्या करना चाहिए.

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