Thursday 27 February 2014

उद्देश्य से भटका स्नातक व शिक्षक निर्वाचन

डॉ आशीष वशिष्ठ


देश के छह राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में द्विसदन की व्यवस्था है। देश में राजनैतिक स्थिरता, विकास, कानून और नीति निर्माण में विषय विशेषज्ञता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए संविधान निर्माताओं ने ये व्यवस्था की थी। लेकिन विधान परिषद का स्नातक और शिक्षक निर्वाचन उद्देश्य से भटकता दिख रहा है। स्नातक निर्वाचन में तो गंभीर चुनावी खामियां व्याप्त हैं। इन चुनावों का प्रारूप वास्तव में लोकतान्त्रिक भावना के विपरीत हो चला है। मौजूदा प्रारूप असल में स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के केवल एक सुविधाजनक अंश का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रत्याशियों के लिए अनुकूल पाया गया है। इसके अलावा नए स्नातकों के साथ तीन वर्ष तक भेदभाव, वर्तमान शैक्षिक संदर्भ में पूर्वाग्रहित है। यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि स्नातक निर्वाचन क्षेत्र और संबंधित चुनाव, वर्तमान परिस्थितियों में वैधानिक उदासीनता की वजह से अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। राजनैतिक विशलेषक डॉ. दिलीप अग्रिहोत्री कहते हैं, राज्यों में उच्च सदन की भावना व उद्देश्य बुरी तरह आहत हो रहा है।

उप्र विधान परिषद में 100 सदस्यों में से आठ-आठ स्नातक और शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित होते हैं। यह 16 एमएलसी प्रदेश भर के लाखों स्नातकों और शिक्षकों का प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन जिस वर्ग का वोट पाकर ये लोग माननीय बनते हैं उस वर्ग में इस चुनाव के प्रति जागरूकता का अभाव है। स्नातक निर्वाचन सीटों पर तो हालात ज्यादा खराब हैं। इन सीटों पर पिछले लंबे समये से चंद लोगों का कब्जा है। अगले साल उप्र में 6 शिक्षक और 5 स्नातक निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव होंगे। राज्य निर्वाचन आयुक्त उमेश सिन्हा कहते हैं, निर्वाचन आयोग अधिक से अधिक वोटरों को इन चुनाव से जोडने में प्रयासरत है। लेकिन राजधानी लखनऊ में ही स्नातक चुनाव का वोटर अभियान ठण्डा पड़ा है। बूथों पर सन्नाटा पसरा है तो वहीं बूथ लेबिल अधिकारी (बीएलओ) का कहीं अता-पता नहीं है। मुख्य निर्वाचन अधिकारी को भी औचक बूथ निरीक्षण में गड़बडिय़ां मिली हैं।

लखनऊ स्नातक निर्वाचन के निर्दलीय प्रत्याशी एडवोकेट अमित शुक्ला के अनुसार, असल में एमएलसी चुनाव पैसे और सोशल सर्किल के दम पर जीतने की परंपरा बन चुकी है। ज्यादातर स्नाताकों को इस चुनाव की जानकारी नहीं है। लखनऊ स्नातक सीट के पिछले चुनाव में कुल मतदाताओं की संख्या तकरीबन डेढ़ लाख थी। जबकि लखनऊ निर्वाचन क्षेत्र में सात जिले आते हैं और हर साल तकरीबन 1 लाख नये ग्रेजुएट मौजूदा संख्या में जुड़ते हैं। चुनाव आयोग भी इस चुनाव के प्रति गंभीर नहीं है। इसी का नतीजा है कि उच्च सदन वे लोग चुनकर आ रहे हैं जो इसमें प्रतिनिधित्व करने के लायक नहीं हैं। बाहुबली, धनकुबेर और मठाधीशों के चंगुल में फंसे उच्च सदन की गरिमा गिरती जा रही है। सरकारी प्रयासों के साथ स्नातकों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपना पंजीकरण कराकर सही प्रतिनिधि चुनें।

इंडियन नेशनल यूथ मूवमेंट के तपेश गौतम कहते हैं, अति-सक्रिय एवं आत्म-केन्द्रित अध्यापक संघो के चलते, विधान परिषद् (अध्यापक) के चयन की प्रक्रिया, चुनावी रूप से आज ज्यादा प्रासंगिक है। इसके विपरीत स्नातक निर्वाचन क्षेत्र एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त हैं। तपेश के अनुसार, बहुसंख्य छात्र-संघों का विफल होना भी एक समस्या है, जिसको स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के परिपे्रक्ष्य से देखना जरूरी है। वाराणसी स्नातक क्षेत्र के निर्दलीय प्रत्याशी रुपेश पाण्डेय के अनुसार, आजकल छात्र राजनीति का मतलब चाटुकारिता और सस्ती लोकप्रियता के बदले प्रतीकात्मक तुष्टिकरण तक सीमित होता जा रहा है। विधान परिषद में शिक्षक दल के नेता ओम प्रकाश शर्मा के अनुसार, राजनैतिक दल स्नातक और शिक्षक सीटों में हस्तक्षेप करने से उच्च सदन की भावना दूषित हो रही है। स्नातक निर्वाचन क्षेत्र में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के अुनसार, यथाशक्य निकटतम बारहवां भाग उस राज्य में निवास करने वाले ऐसे व्यक्तियों से मिल कर बनने वाले निर्वाचक मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा, जो भारत के राज्य क्षेत्र में किसी विश्वविद्यालय के कम से कम तीन वर्ष से स्नातक हैं या जिनके पास तीन वर्ष से ऐसी अर्हताएं हैं जो संसद द्वारा बनायीं गयी किसी विधि या उसके अधीन ऐसे किसी विश्वविद्यालय के स्नातक की अर्हताओं के समतुल्य विहित की गयी हो। आंकड़ों पर एक नजर डाली जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है, कि परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं हैं। जहां उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रदर्शन बहुत खराब है, वही रोजगार के अवसर अनियंत्रित रूप से स्थानबद्ध हो गए हैं। इन मूल कारणों से युवावस्था में शिक्षा एवं व्यवसाय हेतु नियमित स्थानांतरण, आज के स्नातक वर्ग की एक अपरिहार्य वास्तविकता बन चुका है। इस नयी चिरस्थायी प्रवृति ने स्नातक निर्वाचन क्षेत्रो को समावेशी बनाने की जगह, एकान्तिक बना दिया है। हालांकि यह विवरण आम चुनाव पर भी लागू होता है, किन्तु विधान परिषद् (स्नातक) चुनाव में इसका सांख्यिक परिमाण इतना वृहद् है कि उसे नजर अंदाज करना एक गंभीर भूल होगी। उत्तर प्रदेश और लगभग सारे द्विसदन राज्यों में रोजगार के असामान्य भौगोलिक वितरण, उच्च शिक्षा के न्यूनतम बुनियादी ढांचे और क्षेत्रीय राजनैतिक सहूलियत के अनुसार नीतियों के विरुपिकरण का जो विषाक्त मिश्रण तैयार हुआ है, उससे स्नातक निर्वाचन क्षेत्रों के विचार को अपूर्णीय क्षति हुई है।

स्थानीय प्रशासन द्वारा सामयिक निवास की असंगत व्याख्या करने के मामले जग-जाहिर हैं। चुनाव लगभग छह साल के अन्तराल पर होते हैं। वही आज की सामान्य कार्य संस्कृति के अंतर्गत, हर दो-तीन साल पर नौकरीशुदा स्नातकों के ट्रांसफर होते रहते हैं। सामयिक निवास से जुड़ी समस्याएं और भी जटिल होती जाती हैं। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि अक्सर ऐसे वरिष्ठ स्नातक मिल जाते हैं, जिन्होंने आज तक इन चुनावों में कभी भी मतदान नहीं किया। महिलाओ के लिए तो यह समस्या, विवाह सम्बंधित स्थानांतरण की वजह से बहुस्तरीय हो जाती है। डॉ. दिलीप अग्रिहोत्री वोटर बनाने ओर चुनाव प्रक्रिया को सरल बनाने की वकालत करते हैं। एडवोकेट अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी के अनुसार, इन मौलिक खामियों के अलावा, मुख्य व्यवहारिक समस्या इन चुनावों के लिए हो रहे अलग और भ्रामक पंजीकरण के रूप में सामने आती है। न्यू सोशल एण्ड डेमोक्रेटिक इनेशिएटिव के डायरेक्टर डॉ. इमरान खान कहते हैं, पंजीकरण की प्रक्रिया को कई बार जानबूझ कर इतना विकट कर दिया जाता है, कि ज्यादा प्रतिशत राजनैतिक दलों से सीधे या परोक्ष रूप से जुड़े लोगों का होता है। इस प्रकार एक प्रत्यक्ष चुनाव का चरित्र एक अधकचरे निर्वाचन मंडल के चुनाव जैसा बना दिया जाता है। जहां आम चुनाव में कुल मतदाताओ के बीच कम प्रतिशत होने से इस प्रभाव का आभास नहीं होता, वही विधान परिषद् (स्नातक) चुनाव में यह असंतुलन अक्सर परिणाम को प्रभावित कर देता है। चुनाव आयोग ने अपने वर्तमान चुनाव सुधार सम्बन्धी सुझावों में स्नातक एवं अध्यापक निर्वाचन क्षेत्रों के औचित्य पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। हालांकि प्रजातंत्र में राजनैतिक प्रतिनित्धित्व को खत्म करके किसी राजनैतिक समस्या का हल नहीं किया निकाला जा सकता, किन्तु चुनाव आयोग की निराशा यह दर्शाने के लिए काफी है कि यह समस्या कितनी व्यापक है।

टूरिज्म मैनजमेंट कंसलटेंट सय्यद रिजवान अहमद के अनुसार स्नातक और शिक्षक निर्वाचन में राजनैतिक दल अपना प्रत्याशी तो खड़ा करते हैं लेकिन कभी चुनाव घोषणा पत्र जारी नहीं करते। असल
में ये सारा घालमेल का मामला है। स्नातक निर्वाचन में फर्जी मतदाताओं और माफियाओं का कब्जा है। इस बार फर्जी वोटिंग रोकने के लिए निर्वाचन आयोग ने फोटो युक्त वोटर लिस्ट बनाने की पहल की है। किंतु निर्वाचन आयोग की यह पहल पूरी होती दिख नहीं रही है। बीएलओ और मठाधीश नेताओं के बीच गहरी सांठ-गांठ है। इन नेताओं को फायदा पहुंचाने के मकसद से बीएलओ वोटर बूथ से जान बूझकर नदारद रहते हैं जिसके कारण पंजीकरण के इच्छुक लोगों को वापस होना पड़ता है। स्नातक मध्यमवर्ग को अपने प्रतिनिधि चुनने के मामले में संजीदा माना जाता है। किन्तु आज अपरिहार्य स्थानांतरण प्रवृति और अनन्य जातिगत राजनैतिक धुरी के चलते, इस वर्ग की चुनावी प्रासंगिकता खत्म होती जा रही है। परिणामस्वरुप, विधान परिषद (स्नातक) जैसे विशेष प्रतिनिधत्व के सिमटते हुए दायरे की वजह से राजनैतिक दलों के लिए यह वर्ग चुनावी रूप से पूर्णतरू नगण्य हो गया है। यह चुनाव अब विशुद्ध स्नातक वर्ग की सहभागिता के बिना ही, राजनैतिक दलों द्वारा प्रबंधित कर लिए जाते हैं।

जनवादी नौजवान सभा के प्रवीण सिंह के अनुसार, नब्बे फीसद लोगों को स्नातक चुनाव के बारे में पता नहीं है और जिन्हें पता है वो दूसरे को बता भी नहीं रहे हैं। युवाओं की राजनैतिक सक्रियता की बात तब तक ढकोसला मात्र है, जब तक स्नातको की वास्तविक चुनावी भागीदारी को सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाये जाते, स्थानांतरण, पंजीकरण आदि की दिशा में यथार्थवादी नियमो के क्रियान्वयन की तत्काल आवश्यकता है। वहीं जनगणना के रुझान को देखते हुए, अब विधान परिषद् (स्नातक) का कार्य क्षेत्र बढ़ाये जाने का समय आ गया है। इन चुनावों में अध्यनरत पूर्व-स्नातकों तथा नए स्नातकों की भागीदारी को भी सुनिश्चित करने की जरुरत है।

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