Sunday 23 February 2014

वीर सावरकर की हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना


साम्प्रदायिक नहीं है हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना 
वीर सावरकर पुण्य तिथि 27 फरवरी, 2014 पर विशेष 

डॉ अजय दत्त शर्मा 
एक राष्ट्र के तौर पर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हिन्दुस्तान को हिन्दू राष्ट्र के रूप में स्पष्ट करने का श्रेय सर्वप्रथम वीर सावरकर को ही जाता हैं। उनकी हिन्दू राष्ट्र की इस परिकल्पना में उक्त अवधारणा को नए सिरे से भौगोलिक परिक्षेत्र के अंतर्गत समाहित करने का प्रयास किया गया था। वीर सावरकर के अनुसार हिमालय से कन्याकुमारी और अटक से कटक के मध्य स्थित इस विशाल भू भाग के अंतर्गत निवास करने वाले वो लोग जो इसको अपनी मातृभूमि मानते हैं, अपनी पितृभूमि मानते हैं और अपनी जन्मभूमि मानते हैं, वे सभी नागरिक हिन्दू की ही श्रेणी में आते हैं। उक्त अवधारणा में डॉ सुब्रामण्यम स्वामी ने संशोधन करते हुए सिर्फ इतना ही माना है कि जो भी लोग इस भूभाग को अपनी पितृभूमि ही मानते हों उन सभी को हिन्दू कहा जाना चाहिए। जहां तक भारतीय न्यायपालिका का सवाल है उसने भी अभी तक इस शब्द को कभी भी साम्प्रदायिक नहीं माना है बल्कि उसने समय-समय पर इस अवधारणा को पोषण ही प्रदान किया है। 
भारतीय निर्वाचन आयोग संबंधी इस सन्दर्भ को भी गौर करने लायक माना जाना चाहिए। आयोग ने अपने एक निर्णय में एक अनिवार्यता यह अधिरोपित की कि सभी राजनैतिक दलों को एक हलफनामा इस आशय का भी देना चाहिए कि वह धर्मनिरपेक्षता में यकीन करती हैं। सभी पंजीकृत दलों ने इसे स्वीकार करते हुए इस आशय का हलफनामा दिया वहीं केवल अखिल भारत हिन्दू महासभा (जो वीर सावरकर के सिद्धांत पर विश्वास करती है) ने ही इस प्रकार का कोई हलफनामा देने से इनकार कर दिया। जिसमें आयोग ने महासभा को पंजीकरण रद्द करने संबंधी नोटिस जारी किया। उक्त नोटिस के खिलाफ महासभा ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और न्यायालय ने इस मामले पर महासभा के पक्ष में निर्णय सुनाते हुए आयोग को यह निर्देशित किया महासभा का पंजीकरण रद्द न किया जाय क्योंकि हिन्दू शब्द साम्प्रदायिक नहीं है। 
एक व्यक्ति बौद्ध होते हुए भी अपने आपको हिन्दू कहता है, एक आर्यसमाजी अपने आपको हिन्दू मानता है, एक व्यक्ति जैनी रहते हुए भी अपने आपको हिन्दू मानता है। एक सिख भी अपने आपको हिन्दू की श्रेणी में ही रखना पसंद करता है। वहीं दूसरी ओर देश का प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सनातनी मानता है वह भी अपने आपको हिन्दू कहता है। इस तरह से यह शब्द गैर साम्प्रदायिक ही नहीं बल्कि सहिष्णु भी है। विभिन्न धर्मों के मानने वाले लोग भी ऐसा ही कहते हैं। इस तरह से दुनिया भर के इंडो-बौद्ध जिनकी संख्या भी सैकड़ो करोड़ में है और दर्जनों देशों में वे निवास भी करते हैं वह अपने आपको न सिर्फ हिन्दू ही मानते हैं बल्कि वह उसके मूल्यों में शत प्रतिशत आस्था रखते हैं, नेपाल, तिब्बत, श्रीलंका, यूरान, जापान और म्यामार आदि देश इसके जीवंत उदाहरण भी हैं। 
इस अवधारणा के सन्दर्भ में वर्तमान आधुनिक प्रक्रिया के अंतर्गत सामाजिक-राजनैतिक दुनिया में तीन स्कूल आफ थाट अनवरत कार्य करते हुए पाए जाते हैं जिनके बारे में जानना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। 
1पहला विचार-दिल्ली स्कूल आफ थाट्स हिन्दू अवधारणा की इस अध्ययन शाखा को आर्य समाजी आन्दोलन के रूप में जाना जाता है। इस अध्ययन शाखा का प्रवर्तन प्रख्यात समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती के द्वारा किया गया था। इस अध्ययन शाखा ने सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभियांत्रिकी की दिशा में नई ताकत, ऊर्जा और शक्ति दी है। जो आम हिन्दुस्तानी लम्बी गुलामी (जिसमें वह सामाजिक राजनैतिक, और धार्मिक गुलामी की बंदिशें भी झेल रहे थे क्योंकि मुगलों और अंग्रेजों ने यहाँ पर अपनी राजनैतिक सत्ता के साथ-साथ धार्मिक सत्ता भी स्थापित की थी) उनकी आवाज को पूरी ताकत से मुखरता प्रदान की। जिसने दूसरे सम्प्रदाय की ओर पलायन कर चुके, साम्प्रदायिक भेदभाव के शिकार लोगों के लिए बड़े पैमाने पर सामाजिक शुद्धिकरण आन्दोलन चलाया। स्वामी श्रद्धानंद ने फिर से इन हजारों लोगों को पुनः न सिर्फ हिंदू बनाया बल्कि उनको सामाजिक और सांस्कृतिक सुरक्षा भी प्रदान की। स्वामी श्रद्धानंद ने तत्कालीन भारतीय समाज पर काफी प्रभावपूर्ण असर डाला। इसका इतना व्यापक असर हुआ कि बाकी सम्प्रदाय आर्य समाज के मंडन और खंडन से घबराने, भागने और कतराने लगे। इस तरह से यह आन्दोलन और आक्रामक हुआ इसकी प्रतिक्रयास्वरुप बहुत से आर्य समाजियों को इनके हमले भी झेलने पड़े जिसमें बहुत से आर्य समाजी सामाज सुधारक बलिदान भी हुए थे। इन्होंने जाति और पंथ की जकड़न को ढीला किया। जो भी गैर ब्राह्मण वेदपाठी होता था उसके नाम के आगे भी पंडित कहा जाने लगा। इस आन्दोलन ने समाज के बीच में ही साप्ताहिक सत्संग शुरू किये। इस सामाजिक आन्दोलन में बड़ी-बड़ी सखि़्शयत के लोग जुड़ने लगे। मैडम भीखाजी कामा, इंडिया हाउस के संस्थापक श्यामजी वर्मा जैसे लोग भी इसमें अपनी अग्रणी भूमिका का निर्वहन कर रहे थे। यह उस आर्यसमाज का ही योगदान था कि तमाम युवा क्रांतिकारी समुद्र न लांघने की बंदिशें तोड़कर विदेश अध्ययन करने के लिए भी जाने लगे। वहां के खुले और स्वतंत्र वातावरण से प्रभावित हुए और भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का बीजारोपण किया। लाला लाजपतराय, पंडित परमानंद से लेकर चौधरी चरण सिंह, प्रकाशवीर शास्त्री से होते हुए ओमप्रकाश त्यागी तक का इस सामाजिक आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा। 
2 दूसरा विचार- बाम्बे स्कूल आफ थाटस हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के सन्दर्भ में इस स्कूल ने भी अपनी अभूतपूर्व उपस्थिति दर्ज कराई। इसने अंग्रेजों के षडयंत्र का पर्दाफाश करते हुए 1857 के विद्रोह के नाम से ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ एक ऐतिहासिक बदनामी देने का सफल प्रयास किया। इस अध्ययन शाखा के मानने वालों ने इसे भारतीय आजादी की पहली लड़ाई के तौर पर भी प्रचारित और प्रसारित किया। इसी आन्दोलन के केंद्र बिंदु रहे वीर सावरकर ने महज 24 साल की अवस्था में ही प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास नामक एक पुस्तक लिखी जिसमें इस आन्दोलन के दौरान शहीद होने वालों को बलिदानी बताया गया था। बाद में इसे स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ने वालों ने सेनानियों की गीता जैसी विशेषता प्रदान की थी। अंग्रेजों ने इस पुस्तक के प्रकाशित होने से पूर्व ही इस पर पाबंदी लगा दी थी। उनकी लाख कोशिशों के बावजूद यह ग्रन्थ अपने मूल स्वरुप में ही प्रकाशित हुआ। इस कार्य में मैडम कामा ने अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर इसे प्रकाशित होने के लिए अभूतपूर्व संघर्ष भी किया। उस समय इस पुस्तक को सैकड़ों का मूल्य चुकाकर खरीदा जाता था। जो भी धन इसकी बिक्री से एकत्र होता था उसका उपयोग आन्दोलन के लिए किया जाता था। 
इस अध्ययन शाखा के प्रति इस पुस्तक के प्रकाशन के अलावा देशवासी इसलिए भी कृतज्ञ हैं कि इसने हिन्दुओं को पहली बार एक राजनैतिक ईकाई के रूप में सोचने की क्षमता, महत्वाकांक्षा और भविष्य का स्वप्न दिखाया। जिसको औपचारिक स्वरूप प्रदान करते हुए एक वृहद् आन्दोलन खड़ा किया गया। भारतीय संसदीय इतिहास में सर्वप्रथम जो पहला मंत्रिमंडल बनाया गया था उसमे एक पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी थे। वीर सावरकर के चिंतन ने 1952 के चुनाव में प्रथम बार प्रखर राष्ट्रवाद की अलख जगाई। उक्त चुनाव में तत्कालीन प्रखर राजनेता रहे बी जी देश पांडेय जिन्होंने नागपुर और ग्वालियर दो स्थानों से ही लोकसभा का चुनाव लड़ा था जिसमें उन्हें जबरदस्त सफलता अर्जित हुई थी। वह उन दोनों ही स्थानों से बड़े भारी मतों के अंतर से विजयी रहे थे। उन्होंने नागपूर में प्राख्यात नेता और हिन्दू राष्ट्रवाद के विरोधी के तौर पर पहचान रखने वाले को पराजित किया था। 
आज दुनिया में जो भी हिन्दू राजनैतिक चिंतन, महत्वाकांक्षा, और आन्दोलन की बात होती है वह इसी अध्ययन शाखा का दिया हुआ चिंतन ही है या केवल उनका अंश मात्र ही है उसके अतिरिक्त किसी अन्य का कोई भी खास योगदान नहीं आ सका है।
3 तीसरा विचार- नागपुर स्कूल आफ थाट हिन्दू चिंतन की इस अध्ययन शाखा के प्रवर्तक डॉ हेडगेवार जी को माना जाता है। जिनके अद्भुद् साहस और असामान्य नेतृत्वकारी क्षमता के बल पर ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसे संक्षिप्त में आरएसएस या संघ परिवार भी कहा जाता है जैसे दुनिया के सबसे बड़े गैर राजनैतिक संगठन की नींव रखी। उसे पाला, पोसा और वट वृक्ष के रूप में खड़ा किया। इसने अपनी कार्यप्रणाली और नीतियों का बड़े व्यापक स्तर पर जाकर प्रचार-प्रसार किया। समय-समय पर इस संगठन को कई तेजस्वी और त्यागी महापुरुषों का न सिर्फ मार्गदर्शन प्राप्त हुआ बल्कि उन्होंने निर्भीकतापूर्वक उसका नेतृत्व और सफल संचालन किया। इसको अपनी डॉ हेडगेवार के बाद परम पूज्य गुरू गोलवलकर, भाऊराव देवरस, रज्जू भैयाजी, कु सी सुदर्शन और आदरणीय श्रीमान मोहन भागवत जैसी विभूतियों का भरपूर मार्गदर्शन और प्रबोधन प्राप्त होता रहा। इस तरह संघ और उसके सभी अनुषांगिक संगठनों यथा भारतीय मजदूर संघ, सरस्वती स्कूलों की विशाल श्रंखला, हिन्दुओं के सामाजिक क्षेत्र में विश्व हिन्दू परिषद्, हिन्दू जागरण मंच, बनवासी आश्रम सहित दर्जनों संस्थाओं को मूर्त स्वरुप प्रदान किया गया। मौलिक तौर पर यह संगठन सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक प्रतिष्ठा, हिन्दुओं में आत्मसम्मान और स्वाभिमान विकसित करने के कार्य तक ही लम्बे समय तक सीमित रहे। देश के फ़लक से महात्मा गांधी के दिवंगत होने के बाद इस संगठन को अकारण ही राष्ट्रीय शक्तियों के विरोधी विचारों और शासन-सत्ता दोनों के प्रकोप का भाजन बनना पड़ा। इसकी प्रतिक्रयास्वरूप पहली बार राजनैतिक स्तर पर हिन्दू चेतना को राजनैतिक शून्यता का अभाव महसूस किया गया। उस समय कश्मीर में स्थापित प्रखर राजनेता जो वहां प्रजा परिषद् के नाम से राजनैतिक विकल्प को मजबूत करने का प्रयास कर रहे थे आदरणीय बलराज मधोक और अखिल भारत हिन्दू महासभा के लोकमान्य नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री रह चुके डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेतृत्वकर्ता के साथ मिलकर संयुक्त नेतृत्व और कृतित्व में एक नए राजनैतिक संगठन भारतीय जनसंघ की स्थापना की। वहीं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपने को गैर राजनैतिक और सांस्कृतिक संगठन के तौर पर समानांतर तरीके से ही अनवरत मार्गदर्शन करता रहा।
जनसंघ तेजी से आगे बढ़ा। फिर से एक बार आपात्काल के नाम पर प्रजातांत्रिक हत्या के प्रयास के विरोध में एक बड़े जनांदोलन के रूप में लोग लोकनायाक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सड़कों पर उतरे। उस समय परिस्थितियोंवश जनता पार्टी अपने अस्तित्व में आई और जिसमें फिर से हिन्दू चेतना के खिलाफ समर्पित रहने वालों का हस्तक्षेप बढ़ा और फिर से इस समूह को वहां से भी पलायन करना पड़ा। कुछ समयांतराल बाद ही इस समूह ने भारतीय जनता पार्टी के नाम से एक नए दल का विधिवत गठन किया। बीजेपी ने भी राष्ट्रीय मन को छूने वाले कई आन्दोलन चलाए और सत्ता और शक्ति में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई। आज फिर से जनता के राष्ट्रीय मन को छूने वाली बातें फिर से उभार पर हैं और निकट भविष्य में प्रस्तावित चुनावी समर को जीतकर यह विचार एक बार फिर दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होने वाला है। 

महत्वपूर्ण बात यह है कि यह विचार सत्ता की करीबी या उसको छूने का कार्य तभी-तभी कर पाया जब-जब इसने आम नागरिकों जिसे वीर सावरकर के शब्दों में राष्ट्रीय ईकाई के तौर पर हिन्दू माना जाता है जो साम्प्रदायिक बिलकुल नहीं है लेकिन राजनैतिक इकाई जरूर है। यह विचार सन 1967 में हिन्दी भाषा आन्दोलन, गौ रक्षा आन्दोलन के बाद पला बढ़ा और सत्ता के करीब पहुंचा। आपातकाल के पहले ही अखंड भारत का नारा बोलने वालों को जब पाकिस्तान के एक हिस्से पूर्वी पाकिस्तान को हिन्दुस्तान के भू-भाग में फिर से शामिल करने का सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ तो हिन्दुस्तान की तत्कालीन हुकूमत ने ऐसा करना भी मुनासिब नहीं समझा और उसे बांग्लादेश के नाम से एक पृथक राष्ट्र घोषित करने में ही अपनी ज्यादा दिलचस्पी दिखलाई। जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप या विचार एक बार फिर सत्ता के करीब तक पहुंचा। इसके बाद भगवान् जगन्नाथ के रथ की तरह से देश के राष्ट्रीय मन को भारतीय राजनीति के पुरोधा लाल कृष्ण आडवानी और नरेन्द्र मोदी ने खींचकर एक बार फिर से आगे बढ़ाने का सफल प्रयास किया है। एक बार फिर से भारतीय राष्ट्रीय मन को जब यहाँ के सत्तालोलुप राजनेता दुखी कर रहे हैं। करदाताओं के हितों की अनदेखी करके अपने संगठन के बटुए की तरह से ही कर न देने वालों पर आर्थिक संसाधनों की बौछार कर रहे हैं। सच्चर समिति, रंगनाथ मिश्र समिति जैसी राष्ट्रीय मन को दुखी करने वाली समितियों की सिफारिशों को लागू करने की बातों को बेवजह हवा दी जा रही है। 
इतना ही नहीं यहाँ के राष्ट्रीय मन के खिलाफ साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम बिल के नाम पर बार-बार गोधरा की ट्रेन हत्याकांड को एक अलग ढंग से निरूपित करने का बेवजह प्रयास किया जा रहा है। स्वामी असीमानंद, कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जैसी विभूतियों को बिना किसी वजह के प्रताडि़त करने का अभियान चल रहा है। ऐसी ही अनेक घटनाओं से यहां के राष्ट्रीय मन को सिमेटिक ढंग की तरह से इस देश की जनता को जो कभी भी सिमेटिक नहीं रही सिमेटिक ढंग से सोचने के लिए मजबूर किया जा रहा है। जब-जब यहां की जनता अपने आपको आहत महसूस करती है तब-तब दिल्ली का सिंघासन डगमगाने लगता है और नया नेतृत्व दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होकर झंडा फहरा देता है। फिर से राजनैतिक क्षितिज पर इतिहास खुद को फिर से दोहराने जा रहा है। 

(लेखक- डॉ अजय दत्त शर्मा, राजनैतिक विश्लेषक, लखनऊ से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समाचार पत्र अवध दर्पण के प्रधान संपादक हैं।)

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