Sunday 23 February 2014

स्त्री अस्मिता और मीडिया की भूमिका




डॉ. सरोज कुमार शुक्ल
लेखक
स्त्री अस्मिता और मीडिया की भूमिका
स्त्री अस्मिता और मीडिया की भूमिका
नारी अधिकार का अर्थ लोग अक्सर पुरुष सत्ता के विरोध के रूप में ग्रहण करते हैं. एक हद तक ऐसा है भी; लेकिन यह पूरा सच कतई नहीं है.
जैसा कि कहा जाता है और काफी हद तक सही भी है कि भारत मूलत: एक अध्यात्म-प्रधान देश है, धर्म प्रधान नहीं; क्योंकि भारतीय संदर्भ में धर्म के कई अर्थ स्वीकृत हैं. धर्म कहीं क्रिया-व्यापार का वाचक है, तो कहीं न्याय का. संप्रदाय के अर्थ में भी इसका प्रयोग मिलता है. ऐसे में प्रधानता तो किसी एक ही अवधारणा की हो सकती है. सभी अवधारणाएं प्रधान नहीं हो सकती. इसलिए अपनी परिवेशगत विशेषता के कारण यहां दो धाराएं एक साथ विकसित हुई, एक-दूसरे के समानातंर.
परिणामत: एक ओर असंख्य समाधान हैं, तो दूसरी ओर समस्याओं की लंबी कतार है. नतीजतन विश्व में अपनी महत्ता का जयघोष करने वाला यह देश अपने ही अंतर्विरोधों के कारण खोखला होता चला गया और हर बात के लिए पश्चिम का मुखापेक्षी होने लगा. लेकिन अपनी लाख सीमाओं के बावजूद भारत एक सामूहिकता प्रधान देश रहा है और पश्चिम व्यक्ति प्रधान. ऐसे में दोनों की विचारधारा का विकास एक ढंग से कैसे हो सकता है!
यह ठीक है कि भारत में कर्मकांड, पितृसत्तात्मक समाज एवं धार्मिक विश्वास के कारण स्त्रियों के समक्ष अनेक कठिनाइयां थी, लेकिन उनकी सारी कठिनाइयां वैसी नहीं थीं जैसी किसी व्यक्ति प्रधान देश में हो सकती हैं. यही कारण है कि स्त्री अधिकार का प्रश्न अपने प्रारंभिक दौर में आक्रामक रूप में उभरा और यह समझा गया कि स्त्री-अधिकार का अर्थ है पुरुष वर्ग का प्रतिकार. क्या इस सत्य को अस्वीकार किया जा सकता है कि अपनी बहुत-सी समस्याओं के लिए स्त्रियां दोषी हैं!
यह ठीक है कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बड़ी सूक्ष्म एवं दीर्घकालिक होती है. किंतु यह कैसे मान लिया जाए कि परिवर्तन की यह पाश्चात्य प्रक्रिया ही सर्वथा उपयोगी है! हम सभी को यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि स्त्रियों की स्थिति सृदृढ़ करने में पश्चिमी विचारों का महत्वपूर्ण योगदान है; किंतु आंख बंद करके पश्चिम की हर उद्घोषणा का अनुमोदन नहीं किया जाना चाहिए. कोई भी दर्शन किसी देश के निजी सांस्कृतिक परिवेश एवं परिस्थति को ताक पर रखकर विकास नहीं कर सकता. मार्क्‍सवाद जैसा वैज्ञानिक (कार्य-कारण संबंध वाला) दर्शन भी भारत में ठीक वैसे ही लागू नहीं किया जा सकता जैसा रूस अथवा चीन में. स्त्री-अधिकारों के बारे में भी यही सच है.
मीडिया, जो लोकतंत्र का एक सुदृढ़ स्तंभ है, वह अपने विकृत रूप में कदाचित सर्वाधिक घातक भी हो जाता है. मीडिया का कार्य आमतौर पर जनता की राजनीतिक चेतना को विकसित करना, अधिकार एवं कर्त्तव्य से अवगत कराना और देश की वास्तविक (राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, समसामयिक) परिस्थितियों से परिचित कराना है. स्त्री-सशक्तीकरण में मीडिया की भूमिका कुछ बिंदुओं पर सकारात्मक है और कुछ पर नकारात्मक.
मानवाधिकारों की श्रृंखला में जीवन एवं स्वतंत्रता का अधिकार सर्वप्रमुख है. इसका मुख्य तात्पर्य यह है कि जीवन के क्रियाकलापों एवं स्वाभविक विकास पर किसी दूसरे का हस्तक्षेप न हो. स्वतंत्रता से तात्पर्य उन अंकुशों से मुक्ति है जो किसी व्यक्ति के निजी विकास में बाधक हों. वास्तव में यह जीवन के अधिकार का ही विस्तार है. कहा गया है कि व्यक्ति वहीं तक स्वतंत्र है, जहां तक उससे दूसरों के अधिकार पर आघात न पहुंचे. स्वतंत्रता का उद्देश्य सबके व्यक्तित्व के विकास का अवसर प्रदान करना है.
प्रश्न यह है कि मीडिया अपने कर्त्तव्य एवं मानवीय मूल्यों के प्रति किस हद तक प्रतिबद्ध है! एक कटु प्रश्न यह भी है कि मीडिया अपने क्षरित होते चरित्र के प्रति कितना संवेदनशील है! आज बलात्कार, अपहरण एवं हत्या जैसी घटनाओं को प्रमुखता देना और परिणाम की शून्यता मीडिया के किस तरह के चरित्र को प्रस्तुत करता है! बलात्कार की शिकार या अपहरण की शिकार स्त्री की खबर को मीडिया पेश तो करता है, किंतु अपने प्रभाव के बल पर जब अपराधी मुक्त हो जाता है तब मीडिया उधर से सदा के लिए मुंह फेर लेता हैं. सनसनी तो वह पैदा करता है, परंतु संवेदना की दृष्टि से वह प्रभावी नहीं है. विडंबना यह है कि पीड़ित महिला सामाजिक स्तर पर भी तिरस्कार का शिकार होती है. यह कैसी विसंगति है कि बलात्कार भी स्त्री का ही होता है और इज्जत भी उसकी ही जाती है. अपराधी का कुछ भी नहीं जाता, वह अक्षुण्ण बना रहता है.
मीडिया के लिए हत्या भी दर्जनों की संख्या में होती है. जैसे मनुष्य नहीं, वे सिर्फ केला, सेब जैसी कोई वस्तु हों. कैसी संवेदनहीन भाषा है लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की! स्त्रियों को मानवाधिकार के प्रति सजग करने और सामाजिक चेतना पैदा कर जागरण करने में मीडिया का निश्चय ही महत्वपूर्ण योगदान है. पहले जो घरेलू हिंसा की घटनाएं होती थीं, वे अदालत तक नहीं पहुंचती थीं. स्त्रियां उसे सहने को बाध्य थीं, उनके पास कोई विकल्प नहीं था. ऐसी घटनाओं को अदालत तक पहुंचाने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
आज बलात्कार, घरेलू हिंसा एवं बेगारी कराने से पहले अपराधी एक बार दंड से अवश्य ही भयभीत होता है. मीडिया भी ऐसी खबर को उछाल देता है जिससे व्यापक जन समूह उस घटना से परिचित हो जाता है. ऐसे में कोई कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो, मामले को दबाना कठिन हो जाता है. मीडिया की इस कार्रवाई के पीछे भले ही बाजारवाद की अनुप्रेरणा हो, परंतु निश्चय ही इसके कुछ परिणाम सुखद रहे हैं. आसाराम बापू कांड, नित्यानंद कांड और अभी कुछ दिन पहले का धनंजय कांड, इन सबमें मीडिया की भूमिका सराहनीय रही है. मुखौटे वाले ऐसे प्रभावशाली आरोपियों के विरुद्ध एक व्यापक जनमानस तैयार करना आसान नहीं है. मीडिया ने यह कार्य बखूबी और सफलतापूर्वक किया है. लेकिन इस दिशा में और बहुत-सी अपेक्षाएं है.
भारतीय समाज में स्त्री जीवन के संघर्ष की कथा धरती पर जन्म लेने के समय से शुरू होती है और किसी न किसी रूप में जीवनपर्यत चलती रहती है. भ्रूण हत्या, बचपन में स्वास्थ्य और शिक्षा में भेदभाव, विवाह के लिए दहेज, नौकरी में शोषण और यौन उत्पीड़न ऐसे अवसर हैं जब पितृसत्तात्मक समाज में जी रही स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति बार-बार उभर कर सामने आती है. मौन सहती, सिसकती स्त्री का यह सच अब भी उसकी नियति बना हुआ है. क्या मीडिया इस सच को उद्घाटित कर देश की रीति-नीति को बदलने की पहल करेगा!

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