Monday 24 February 2014

यूपी के चुनावी दंगल में दंड पेलते पहलवान, जनता हलकान



- अरविन्द विद्रोही

आगामी लोकसभा चुनावों की तिथियों की औपचारिक घोषणा फरवरी अंत में होना सम्भावित है। राजनैतिक दलों के चुनावी सेनापति अपनी-अपनी सेनाओं के साथ चुनावी समर में शंखनाद प्रारम्भ कर चुके हैं, राजनैतिक पहलवान ताल ठोंककर एक दूजे को अपना दमखम दिखा रहे हैं, कुछ शतरंज के खेल के माहिर राजनेता शतरंजी बिसात को बिछाने व जिताने-हराने के लिये मोहरों को आगे-पीछे करने में मशगूल हैं। राजनेताओं के चापलूस समर्थक चाशनी लपेटे शब्दों में भाटों-चारणों की तरह अपने-अपने नेता के गुणगान करने में दिन-रात एक किये हैं। पत्रकार-मीडिया घराने भी चुनावी बरसात में अपने को धनलक्ष्मी की कृपा से लाभान्वित करने के साम-दाम-दंड-भेद हर तरीके से लगे हैं। आम जनमानस मुँह बायें राजनेताओं की अनोखी जवाबी कीर्तन को देख सुनकर हलकान है और मीडिया की हालात सौ-सौ जूते खाये तमाशा घुस के देखे, वाली सी हो गयी है। अब जनता और मीडिया दोनों के नसीबा में यही सब है तो ये राजनीति के दबंग पहलवान और उनके चाटुकारों को क्या कोसना ?

उत्तर-प्रदेश के चुनावी दंगल में एक दूजे पर आरोपों-प्रत्यारोपों के तीखे व्यंग्य बाण चलाने में कोई भी राजनेता कोई भी कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर-प्रदेश में प्रदेश की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी से मुकाबिल होने के लिये कोई भी मौका बसपा, भाजपा, कांग्रेस और अन्य दल नहीं चूकना चाहते हैं और विडम्बना देखिये कि उत्तर-प्रदेश में विपक्ष को मौका तलाशना नहीं पड़ रहा है, सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के समझदार मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, तमाम काबिल काबीना मंत्री, जिम्मेदार नौकरशाह अपने कृत्यों-बयानों से स्वतः विपक्ष को घेरने व हमलावर होने का मौका प्रदत्त करते रहते हैं।

उत्तर-प्रदेश की राजनीति में ना तो सपा की उपेक्षा की जा सकती है और ना ही बसपा की। सपा के संगठन की वास्तविक ताकत सिर्फ और सिर्फ सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के अपने व्यवहार, तपे-तपाये समाजवादियों, प्रभावी बाहुबलियों को अपने साथ जोड़ने की अदभुत क्षमता के कारण है, तात्कालिक कारण अलग से फायदेमन्द हो जाते हैं। बसपा प्रमुख मायावती की राजनैतिक ताकत के पीछे सर्वाधिक बड़ा योगदान बहुजन समाज को सामाजिक चेतना से राजनैतिक चेतना तक ले जाने वाले नायक स्व. कांशीराम का ही तो है। बहुजन समाज की ताकत को सर्वसमाज के साथ भागीदारी के नारे के साथ समन्वय स्थापित कर मायावती ने अपनी राजनैतिक ताकत में इजाफा किया है। बसपा के पास समर्पित दलित कैडर है तो सपा के यादव-मुस्लिम आधार मतदाता, जिसमें मुस्लिम मतदाता को साधने में सपा सरकार कोई कसर नहीं रख रही लेकिन मुस्लिम मठाधीशों के तेवर बदली हवा और रुख के सन्देश दे रहे हैं। उत्तर-प्रदेश में कांग्रेस -भाजपा दोनों का प्रदेश नेतृत्व जनाधारविहीन और कमजोर है। भाजपा के कार्यकर्ता और नेता तो सिर्फ और सिर्फ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि-प्रभाव के बलबूते बन रही हवा-लहर के ही सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की मानो सौगन्ध ही खा चुके हैं। नमो-नमो के अनवरत जाप और उनके पुरुषार्थ के अतिरेक गुणगान के अतिरिक्त उत्तर-प्रदेश के भाजपाई खुद कुछ भी नहीं करना चाहते हैं। रही बात कांग्रेस की तो विकास पुरुष की छवि वाले गोण्डा से कांग्रेसी साँसद बेनी प्रसाद वर्मा -केन्द्रीय इस्पात मन्त्री, भारत सरकार कई बार उत्तर-प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष व अन्य नेताओं को कठघरे में खड़ा कर चुके हैं। अपने बेबाक बयानों के तीक्ष्ण तीर बेनी प्रसाद ना सिर्फ माया-मुलायम-मोदी पर छोड़ते हैं वरन उनके निशाने पर निर्मल-पुनिया-प्रमोद भी रहते हैं। बेनी प्रसाद वर्मा के तीखे व्यंग्य बाणों पर ये कांग्रेसी सिर्फ मनमसोस कर तिलमिला कर रह जाते हैं कारण शायद बेनी प्रसाद वर्मा का अपना जनाधार, समाजवादी पृष्ठभूमि, संघर्ष का माद्दा व राहुल-सोनिया गाँधी से अति निकटता ही है।

भाजपा के शीर्षस्थ रण नीतिकारों ने इस बार उत्तर-प्रदेश एवं बिहार दोनो जगह अपनी चुनावी विजय सुनिश्चित करने के लिये सम्पूर्ण ऊर्जा लगाने और कड़े फैसले लेने का निर्णय ले लिया है। बिहार में उपेन्द्र कुशवाहा को साथ लेकर व उत्तर-प्रदेश में नरेंद्र मोदी के विश्वस्त अमित शाह को प्रभारी की जिम्मेदारी देकर यह दोनों बड़े राजनैतिक किले फतह करने का दुष्कर प्रयास भाजपा नेतृत्व द्वारा जारी है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी उत्तर-प्रदेश से ही हैं। स्वयं राजनाथ सिंह के प्रभाव के चलते, भाजपा में उनके बढ़े कद के चलते उनके स्वजातीय मतदाताओं का रुझान तेजी से एक बार पुनः भाजपा की तरफ हुआ है। श्री रामजन्म भूमि आन्दोलन में सक्रिय रहे कैसरगंज के निवर्तमान संासद बृजभूषण सिंह के द्वारा सपा छोड़कर भाजपा में पुनर्वापसी करने से पूर्वांचल में भाजपा की ताकत में बड़ा इजाफा हुआ है। भाजपा उत्तर-प्रदेश में अगर लोकसभा प्रत्याशी चयन में पारदर्शिता बरतने में सफल रही, उत्तर-प्रदेश के जनाधार विहीन गणेश परिक्रमा में माहिर भाजपा नेताओं के पुत्रों, चापलूसों, जेबी धनपशुओं को टिकट देने से परहेज कर ले गयी और स्थानीय, प्रभावी, निष्ठावान, समर्पित भाजपा कार्यकर्ताओं-नेताओं को लोकसभा चुनाव में अपना प्रत्याशी बनाया तो नरेंद्र मोदी की हवा-लहर को चुनावी कामयाबी में परिवर्तित करने में भी भाजपा नेतृत्व कामयाब हो जायेगा। कांग्रेस नेतृत्व भी उत्तर-प्रदेश में पुरानी घोड़ी पुरानी चाल कहावत को चरितार्थ करने पर ही आमादा है जबकि कांग्रेस के पास माया-मोदी-मुलायम पर हमलावर रहने वाले बेनी प्रसाद वर्मा मौजूद हैं। बेनी प्रसाद के बलबूते कांग्रेस उत्तर-प्रदेश के नौ प्रतिशत कुर्मी मतों को थोक में कांग्रेस के पाले में लाने का प्रयास कर सकती है और तो और अन्य पिछड़ा वर्ग, मुस्लिम समुदाय में भी बेनी प्रसाद की अच्छी-खासी पकड़ है। बहरहाल अब ऐसी कोई सम्भावना नहीं दिखाई देती कि उत्तर-प्रदेश में कांग्रेस संगठन में नेतृत्व परिवर्तन करे।

उत्तर-प्रदेश में भाजपा जहां बढ़त हासिल करने के लिये सर्वाधिक प्रयासरत है वहीँ सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव को अब अपनी राजनैतिक ताकत का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने की चिन्ता सता रही है। उत्तर-प्रदेश विधान सभा 2012 के आम चुनाव में उत्तर-प्रदेश की जनता ने सपा को सर आँखों पर बैठाया और भारी बहुमत से जिताकर सत्ता सौंप दी थी। यह सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ही हैं जिन्होंने खुद मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी ना लेते हुये उस वक्त उम्मीदों के युवराज बन चुके अपने पुत्र अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी का निर्वाहन करने का दायित्व सौंपा था। जमीनी कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद अब भी कायम रखने वाले मुलायम सिंह यादव उम्र के इस पड़ाव पर भी अति सक्रिय हैं। बड़ी-बड़ी जनसभाओं, संगठन के सम्मेलनों के अतिरिक्त अपने लखनऊ प्रवास के दौरान अपनी चैपाल लगा देते हैं। गर्मी और बरसात में सभागार के भीतर और सर्दियों में खुले मैदान में कार्यकर्ताओं के साथ बैठकर मुलायम सिंह यादव खुद कुरेद-कुरेद कर संगठन, मंत्रियों और विधायकों के कार्यशैली के विषय में जानकारी हासिल करते हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हों या मुलायम सिंह यादव, ये दोनों नेता जमीन से जुड़े हुये और अपने समर्थको के दिलों पर राज करते हैं। नरेंद्र मोदी के पीछे भाजपा-संघ परिवार का विशाल संगठन है वहीँ मुलायम सिंह यादव के पीछे उनकी खुद की बनाई पार्टी-ताकत।

यह अत्यन्त दुर्भाग्य की स्थिति है कि सपा सरकार उत्तर-प्रदेश में कानून व्यवस्था कायम रखने में पिछली बसपा सरकार की तुलना में बुरी तरह असफल रही है। मुजफ्फरनगर दंगों की आंच व पीड़ा अब तलक दंगा पीडि़तों के साथ-साथ सरकार को भी हलकान किये है। सपा में अपने को कद्दावर मुस्लिम नेता मानने वाले मुस्लिम नेताओं की इतनी भी हैसियत नहीं है कि वे मुस्लिम समुदाय के बीच जाकर सपा सरकार के द्वारा उनके हित में किये गये तमाम कार्यों-योजनाओं को बतायें दंगा पीडि़तों के मध्य रहकर उनके जख्मों पर मरहम लगायें। और तो और इन स्वयंभू मुस्लिम नेताओं की इतनी भी क्षमता नहीं है है कि ये मुस्लिम समुदाय की बात उसकी पीड़ा को सपा नेतृत्व से खुलकर बता सकें। अपनी कौम के नाम पर सत्ता सुख का लाभ उठा रहे तमाम स्वयंभू मुस्लिम नेता कौम व सपा संगठन दोनों के ही वफादार नहीं हैं। ना तो इनको अपने कौम की भलाई की फिक्र है और ना ही कौम में सपा की पकड़ उबनाने की चिन्ता, इन स्वयंभू सपा के मुस्लिम नेताओं को सिर्फ सत्तासुन्दरी के रसास्वादन को उठाने की ही फिक्र है।

सपा की उत्तर-प्रदेश की सरकार के इस दौर में भाजपा नेता नरेंद्र मोदी- मुख्यमंत्री, गुजरात उत्तर-प्रदेश में लगातार भारी जनसमुदाय वाली जनसभायें सम्बोधित करके अपने लक्ष्य को हासिल करने में जुटे हैं। जनसभाओं में भारी भीड़ मुलायम-माया के नाम पर भी खूब जुटती दिखी परन्तु नरेंद्र मोदी के समर्थक जिस लगन, अनुशासन व उत्साह से लोकसभा चुनाव के प्रचार-प्रसार में लगें हैं, मोदी की विकास परक छवि को बताने-निखारने में रातों दिन एक किये हैं उस लिहाज से मुलायम समर्थक बुरी तरह से पिछड़े हुये हैं। बसपा प्रमुख मायावती-उनके समर्थक बड़ी खामोषी से अपने आधार मतों पर मजबूती बनाये हुये प्रत्याशी चयन में जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर लोकसभा का चुनावी दंगल जीतने की जुगत में हैं। बसपा की नजर भी अब अल्पसंख्यक मतों पर आ टिकी है, आम धारणा यह बन चुकी है कि अल्पसंख्यक मतों का भारी रुझान भाजपा प्रत्याशी को हराने वाले मजबूत प्रत्याशी को जायेगा, राजनैतिक दल गौण रहेंगें। भाजपा के पक्ष में मतों के ध्रुवीकरण की हवा और मुस्लिम मतों में बिखराव का लाभ उत्तर-प्रदेश में भाजपा को मिल जाये तो बड़े आश्चर्य की बात नहीं होगी। इस चुनावी दंगल में सभी राजनेता अपनी जोर आजमाइश कर रहे हैं और जनता रोजमर्रा की मुसीबत में हलकान राहत, बख्शीश, जातीय-धार्मिक उन्माद के सहारे मतदान तिथि की बाट जोह रहा है।




अरविन्द विद्रोही, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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