Friday 28 February 2014

नए राज्य पुर्नगठन आयोग की जरूरत


राजकुमार गर्ग
संसद के दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा से तेलंगाना विधेयक पास होने के बाद अब आंध्र प्रदेश के विभाजन और देश के नए २९वे प्रदेश तेलगांना के गठन का रास्ता साफ हो गया है। लोकसभा और राज्य सभा में तेलंगाना विधेयक पर भारी हंगामा हुआ। संसद के दोनों सदनों में तेलंगाना के विरोधी सांसदो ने अशोभनीय आचरण करके सारी मर्यादाए तार-तार कर दी। लोकसभा में चाकू निकाला गया, मिर्च का स्प्रे किया, राज्यसभा उपाध्यक्ष से हाथापाई की गई। विधेयक की प्रतियां फाडी गर्ठ। विधेयक फाडकर प्रधानमंत्री पर फेंका गया। गृह मंत्री के हाथ से विधेयक छीना गया। तेलंगाना को लेकर कांग्रेस में ही विरोध हुआ। आंध्र के मुख्यमंत्री किरण रेड्डी ने मुख्यमंत्री पद, कांग्रेस और विधायक पद से इस्तीफा दे दिया। सीमांध्र इलाके के केन्द्रीय मंत्रियों और कांग्रेस सांसदों ने भी विरोध किया। आंध्र के बटंवारे से सीमांध्र को होने वाली क्षतिपूर्ति के लिए विधेयक में ५ वर्ष के लिए सीमान्ध्र को विशेष पैकेज और विशेष दर्जा देने का प्रावधान किया गया। तेलंगाना विधेयक पर आंध्र के सीमांध्र क्षेत्र के कांग्रेसी सांसदो के अलावा तेलगू देशम पार्टी, शिवसेना, वामपंथी दलो, तृणमूल कांग्रेस, सपा आदि ने भी विरोध किया, लेकिन भाजपा के समर्थन से कांग्रेस ने भारी शोरगुल के बीच संसद के दोनों सदनों में तेलंगाना विधेयक पास करा लिया। आंध्र में कांग्रेस के गिरते जनाधार के कारण कांग्रेस को तेलंगाना क्षेत्र से सीटो की उम्मीद है। इसलिए कांग्रेस ने भाजपा के समर्थन से तेलंगाना विधेयक पास कराया। तेलंगाना के विरोध में आंध्र में पिछले दिनों भारी हिंसा हुई थी। तेलंगाना की मांग नई नहीं है बल्कि ४० साल पुरानी है। इस मांग को लेकर हुए आंदोलनों में करीब ३५० लोगों की जान भी जा चुकी है। नए प्रदेश की मांग तेलंगाना क्षेत्र की अनदेखी से उठी थी। तेलंगाना क्षेत्र में जल, रोजगार के अवसर और विकास में पूरी भागीदारी नहीं मिलने से आंध्र में अलग तेलंगाना बनाने की मांग को बल मिला। आजादी के बाद आंध्र प्रदेश देश का पहला प्रदेश था जिसका गठन भाषाई आधार पर हुआ था। तेलंगाना का विरोध करने वालो का तर्क था कि आंध्र के गठन के बाद पूरे आंध्र का सर्वांगीण विकास हुआ है। तेलंगाना क्षेत्र की अनदेखी का आरोप गलत है। तेलंगाना विवाद में तेलंगाना को अलग करने की मांग तो पहले सीमांध्र से ही उठी थी। १९७२ में तेलंगाना को आंध्र से अलग करके जय आंध्र नाम से प्रदेश बनाने की मुहीम शुरू हुई थी। इसके लिए आंदोलन भी हुआ था। भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश का गठन पुराने मद्रास राज्य और नवाबशाही राज्य हैदराबाद के तेलगू बोलने वाले इलाको को मिलाकर किया गया था। आंध्र के लोग अंग्रेजी शासनकाल से ही मद्रास राज्य से तेलगू भाषी क्षेत्र को अलग करने के लिए संघर्ष करते रहे थे, लेकिन सफल नहीं हुए थे। देश आजाद होने के बाद गांधीवादी नेता पोट्टी श्री रामुलू ने आंध्र प्रदेश के गठन की मांग को लेकर आमरण अनशन किया था। रामुलू की १५ दिसंबर १९५२ को मृत्यु होने के बाद नेहरू सरकार ने मजबूर होकर लोकसभा में आंध्र प्रदेश बनाने की घोषण करनी पड़ी। एक अक्टूबर १९५३ को आंध्र प्रदेश बना। इसकी राजधानी कुर्नुल बनी। 
तेलंगाना का विरोध राजनीतिक नहीं बल्कि आर्थिक रहा है। केवल हैदराबाद का तेलंगाना में शामिल होना ही इसके विरोध का कारण नहीं है बल्कि इसके पीछे उद्योगपतियों का पूरा खेल रहा है। सीमांध्र के उद्योगपतियों का हजारों करोड़ रुपए का निवेश हैदराबाद में है। तेलंगाना के लोगों ने सीमांध्र की दादागिरी से त्रस्त होकर ही अलग तेलंगाना बनाने की मांग उठाई थी। भाषा के आधार पर प्रदेश बनाने की शुरूआत अंग्रेजी शासनकाल में ही शुरू हो गई थी। भाषा के आधार पर अंग्रेजी शान में पहले प्रदेश उडीसा (वर्तमान ओडिशा) बना था। भाषाई राज्य बनाने के लिए अनेक स्थानों पर दंगे भी हुए थे। पंजाबी भाषी पंजाबी सूबा बनाने तथा गुजराती भाषी गुजरात बनाने और मराठी भाषी महाराष्टड्ढ्र बनाने के लिए व्यापक हिंसा भी हुई थी। भाषाई प्रदेश बनने से दूसरे प्रदेशों की भाषा वाले लोगों को कठिनाई भी होती है। इसका उदाहरण महाराष्टड्ढ्र है। महाराष्टड्ढ्र में शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्टड्ढ्र नव निर्माण सेना आए दिन दूसरे प्रदेशों के लोगों का विरोध आंदोलन करती रहती है। उन्हें मराठी बोलने पर मजबूर करती है। इससे वहां के विकास में सहयोगी दूसरे प्रदेशों के लोगों का जीवन दूभर हो गया है। महाराष्टड्ढ्र में शिक्षा प्राप्त करने के लिए पूरे देश के छात्र जाते थे, लेकिन वहां बहारी छात्रों का विरोध होने से अब दूसरे प्रदेशों के छात्रो का जाना कम हो गया है। तेलंगाना के बाद अब और नए राज्यों के गठन की मांग उठी। महाराष्ट्र में विदर्भ, पश्चिमी बंगाल में गोरखालैंड, पूर्वाेत्तर में बाडोलैड तथा उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश, बुलंदेखण्ड और पूर्वांचल की मांग पहले से हो रही है। अब इन नए प्रदेशों को बनाने की मांग को लेकर आंदोलन तेज होंगे। एनडीए शासन में तीन नए प्रदेश छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड बने थे। अब नए राज्यों की मांग को लेकर नए-नए क्षेत्रीय और भाषाई समीकरण और संगठन बनेंगे। आंदोलनों का दौर शुरू हो जाएगा। इससे प्रदेशो में विकास की गति रूकेगी। नए प्रदेशों की मांग देश में एक नई उथल पुथल पैदा कर सकती है। तेलंगाना के बाद अब नए प्रदेशों की मांग को नकारा नहीं जा सकता। इसलिए अब आवश्यकता है एक नए राज्य पुर्नगठन आयेाग की। यह आयोग नए प्रदेशों की मांगों पर अध्ययन कर नए प्रदेशों के गठन की संस्तुति करें, लेकिन इस आयोग को केवल भाषा और राजनीतिक आधार के साथ-साथ प्रशासनिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियों को भी ध्यान में रखकर ही नए प्रदेशों की संस्तुति करनी चाहिए। पूर्व में जो छोटे प्रदेश बने है, उनमें से अनेक आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण केन्द्र के मोहताज बने हुए है। 

(लेखक राजकुमार गर्ग वरिष्ठ पत्रकार हैं। श्री गर्ग समय-समय पर सम-सामयिक विषयों पर आलेख लेखन का कार्य पूरी निष्ठा के साथ निष्पादित करते हैं।)

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