Thursday 27 February 2014

मूल्यहीन राजनीति का दौर

वर्तमान में राजनीति सिद्धांतों, मूल्यो और मुद्दों से भटक गई है। लगभग सभी राजनैतिक दल सत्ता मंच आने या सत्ता में बने रहने के लिये राष्ट्र की सुरक्षा व संस्कृति को भी दांव पर लगाने से भी नही हिचक रहे हैं। वोट बैंक, अवरसारवादी गठजोड़, जात-पात और तुष्टिकरण की नीति के चलते राजनीतिक दल और नेता राजनीति के मूल चरित्र अर्थात देश और जनसेवा को भूलकर सत्ता में बने रहने और हथियाने के फेर में लगे हैं। भ्रष्टाचार सिर चढ़कर बोल रहा है और जनता मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रही है। विधायिका सिर से पांव तक भ्रष्टाचार में सनी है। देश के आम आदमी का राजनीति और नेताओं से भरोसा उठ चुका है। लोकतंत्र के चार खंभों में से सबसे महत्वपूर्ण खंभे विधायिका का गिरता चरित्र और मूल्यहीनता पूरे लोकतंत्र के लिए गंभीर संकेत और खतरे की घंटी है, बावजूद इसके मूल्यहीनता में उत्तरोतर बढ़ोतरी हो रही है। मूल्यों की राजनीति अब इतिहास की बात होती चली जा रही है। आज की राज्नीति मे इसके लिये जगह बहुत छोटी हो गयी है। यही कारण है कि मूल्यवान लोग राजनीति मे नही आ पा रहे हैं। 

आजादी से पूर्व राजनीति मूल्यों से भरपूर थी तो वर्तमान में राजनीति पूर्णतरू मूल्यहीनता की स्थिति में पहुंच गया है। वर्तमान में राजनीतिक दलों के व्यवहार और कार्यकलापों पर दृष्टि डालें तो लगता है कि राजनीति राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और सामाजिक परिवर्तन के ध्येय से विमुख होकर सत्ताभिमुखी हो गई है। राष्ट्र और जनसेवा का स्थान सत्ता की आंकाक्षा और सत्ता के भोग ने ले लिया है। इसमें से अनेक प्रकार की विकृतियां उत्पन्न हुई हैं, सत्ता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा, दलबदल, अवसरवादिता, भ्रष्टाचार, विशेषरूप से सार्वजनिक जीवन के उच्च स्थानों पर व्याप्त भ्रष्टाचार, तुच्छ स्वार्थों और लाभ के लिए जनभावनाओं को भड़काने की प्रवृत्ति, वोट बैंक की राजनीति के चलते विकृतियों के कारण आज भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में शुचिता की भारी कमी आ गई है और राजनीति में मूल्यहीनता सिर चढ़कर बोल रही है। राष्ट्र और जनहित से जुड़े तमाम मुद्दों पर जिस तरह से राजनीतिक दल और नेताा जिस तरह की ओछी बयानबाजी और तुच्छ राजनीति करते हैं वो देश की आंतरिक सुरक्षा और साख को ही दांव पर लगाने से बाज नहीं आते हैं। 

आज देश मे जो स्थिति है उसमें सरकार, विपक्षी दल व थैलीशाहों अमीरों के बीच एक नापाक जुगलबंदी साफ दिखती है जिन्हें सिर्फ अपने हितों और स्वार्थ की चिन्ता है। इस कारण आम मध्यमवर्गीय व गरीब आदमी की जिंदगी दिनों दिन मुश्किल होती जा रही है। देश के विपक्षी दलो से यह अपेक्षा थी कि वे सरकार की जन विरोधी व तुष्टीकरण नीतियों का विरोध करते लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनो ही कारपोरेट और औद्योगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपिनयों की मजबूत लाबी की तुष्टिकरण की नीतियों को बढ़ावा देने में लगे हैं, जिससे आम आदमी के हितों की बली चढ़ रही है। राजनीतिक विचारधारा इस कदर राह भटक चुकी है कि अपराधियों को पानी पी-पीकर अपशब्द बोलने वाले, गांधी की सौंगध खाने वाले  टिकट वितरण के समय तमाम आदर्श, सिद्वांत और शुचिता भूलकर बाहुबलियों को छांट-छांटकर टिकट देते हैं। इस मामले में कोई भी पार्टी दूध की धुली नहीं है। कथनी और करनी का फर्क चुनाव में दिखाई देता है। सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक दल साम-दाम-दण्ड और भेद की राजनीति करने से गुरेज नहीं करते हैं। राजनीति का चरित्र केवल सत्ता प्राप्ति हो गया है, और सत्ता प्राप्ति की राह में मूल्यों बुरी तरह रौंदे जाते हैं। 

वोट बैंक और जात-पात की राजनीति पूरे उफान पर है। अल्पसंख्यकों और दलितों के मसीहा बनने की कोशिश पर किसी को ऐतराज नहीं है पर क्या उनके पास इस बात का कोई जवाब है कि आखिर आजादी के 65 वर्षों बाद भी इन वर्गों की स्थिति सुधरी क्यों नहीं। क्या वे इस बात का जवाब दे सकते हैं कि आखिकर इसी देश में पैदा होकर पलने-बढने वाला बच्चा जवान होकर इसी देश के खिलाफ हथियार क्यों उठा रहे हैं। क्या उनके पास इस बात का जवाब है कि जो लोग देश के बंटवारे के समय कहीं और जाने के बजाय यहीं रहना बेहतर मानते थे उनके बच्चे दूसरे देश की ओर क्यों ताकने लगे हैं। सवाल तमाम हैं जात-पात की राजनीति करने वाले स्वार्थी और ढोंगी नेताओं के लिए जो तुच्छ राजनीति की खातिर अल्पसंख्यकों और दलितों को इंसान समझने के बजाय वोट डालने वाले मशीन समझते हैं और जाति, धर्म, भाषा, नस्ल और लिंग यह सब लोगों को आपस में बांटते हैं। हमारे राजनेता हमारे बीच अलगाव के बीज बोने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। राजनीतिक दल एक दूजे पर कीचड़ उछालने और दोषी बताने में तो आगे रहते हैं परंतु वस्तुतरू समस्त राजनीतिक दलों का मकसद एक ही है और वह है अपना-अपना वोट बैंक बनाना और बचाना।

वर्तमान भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा दोष यह है कि हमारे प्रतिनिधि संसद में शोर मचाते हैं और सड़क पर एक दुसरे का बखिया उखेड़ते हंै लेकिन अंदर ही अंदर सबमें गहरी जुगलबंदी और गठजोड़ है। मूल्यहीन सुविधाओं, ढांचों और संस्थाओं से सरकार व सत्ता तो चल सकती है, पर सही मामलों में लोकतंत्र का विकसित होना मुश्किल होता है। ऐसा राज्य जिस जनता को विकसित करेगा, उसमें मूल्यहीनता, लालच और सुख-साधनों की चाह ही भरी होगी। इसके कारण समाज में असंतोष और टकराहटे बनी रहेंगी, वर्तमान हालात इसी ओर इशारा करे रहे हैं। आज यह जरूरी हो गया है कि देश की राजनीति को मूल्यों और मुद्दो की पटरी पर वापस लाने के लिये पहल की जाये तथा देश में राष्ट्रभक्त और राष्ट्रसेवा से परिपूर्ण राजनीति को उभारने के लिये जनमानस तैयार किया जाऐ।  और जबतक मूल्यवान लोग राजनीति मे नही आते, तबतक आदर्शों और निष्ठा की बात तो होगी, उस पर अमल नही होगा। भ्रष्टाचार दूर करने के लाख उपाय कर लिये जायें, मगर वह दूर नही होगा। अवसरवाद को बढ़ावा मिलता रहेगा। दलबदल होते रहेंगे। मूल्यहीनता की राजनीति करनेवाले लोगों ने ही राजनीति के तालाब को गंदला किया है।

डॉ आशीष वशिष्ठ 

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