Friday 28 February 2014

क्या दशकों से लटके मुकद्दमें न्यायिक अराजकता नहीं हैं?


डा. विनोद बब्बर
पिछले दिनों देश की सबसे बड़ी अदालत ने फांसी या माफी के इन्तजार में लटके लोगों को राहत देते हुए उनकी सजा को उम्रकैद में बदल दिया है। सेशन कोर्ट, हाई कोर्ट के बाद उच्चतम न्यायालय तक में दोषी साबित हो चुके ये लोग निश्चित रूप से सजा के हकदार हैं लेकिन दशको से कोर्टे के न्याय की इन्तजार में धक्के खा रहे निर्दाष लोगो को राहत देने के मुद्दे पर देश की सबसे बड़ी अदालत का मौन खलता है। अनेक मामले तो देश के लिए नासूर बने हुए है न्याय का सर्वभौमिक सिद्धांत है, ‘बेशक हजार दोषी छूट जाए लेकिन कोई निर्दोष फांसी पर नहीं चढ़ना चाहिए। आश्चर्य है कि दोषियों के मानवाधिकारों की चिंता को सभी को है लेकिन निर्दोषों के प्रति कोई समय सीमा निर्धारित करने में हम असफल रहे हैं।
इस बात से किसे इंकार होगा कि फांसी या माफी पर जल्द अथवा एक समय सीमा के अंतर्गत फैसला होना चाहिए लेकिन करोडो मुकदमो के निपटान पर भी तो कोई समय सीमा निर्धारित होनी चाहिए। वास्तव में मुकदमो का लम्बे समय तक लटकते रहना स्वयं फैसला करने की प्रवृति को बढ़ाता है जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अपराधो को बढ़ावा ही है। मुकद्में किस तरह चलते हैं इसका स्वयं भुगता एक उदाहरण देखे- चौक वापसी से संबंधित नियम में स्पष्ट कहा गया है-‘मामला दर्ज होने के छ मास के अंदर उसे पूरा किया जाएगा।’ जबकि मेरे मामले में छ वर्ष से अधिक बीत जाने के बाद भी ‘पूरा करने’ जैसी कोई संभावना नजर नहीं आती। इस मामले में तो एक बार 14 माह बाद की तारीख दी गई। लगभग हर दूसरी बार जज अथवा कमरा बदल जाता है तब सुनवाई नहीं केवल अगली तारीख की औपचारिकता पूरी की जाती है। एक बहुचर्चित जज साहब ने तो 50 मिनट में 60 से अधिक मामले निपटाए। हमारा नंबर 60 था। जब तक हमारे वकील साहिब उपस्थित होते उन्होंने कई महीनों बाद की तारीख देते हुए अपनी ओर से ‘न्याय’ देने का कर्मकांड पूरा कर दिया। आज तक 23 तारीखों में स्वयं और वकील सहित उपस्थिति का का समय मूल्य चौक की राशि से अधिक हो चुका है ऐसे में जब भी हो, जीत आखिर हार से कैसे भिन्न होगी। 2008 में विधि मंत्री ने ससंद में बताया था कि ‘चेक वापस होने वाले मामलों से निपटने के लिए एक विशेष तंत्र पर विचार किया जा रहा है।’ आश्चर्य की उनका विचार विचारों से आगे ही नहीं बढ़ा।
न्याय में देरी का मुद्दा महत्वपूर्ण है। ऐसे लोगों की कमी नहीं जिनका पूरा जीवन ही न्याय के इंतजार में बीत गया। कहा गया है ‘जस्टिस डिलेड इज, जस्टिस डिनाइड’ अर्थात् ‘न्याय में देरी, न्याय से वंचित होना ही है’ क्या यह सत्य नहीं कि आज न्यायालयों में न्याय के नाम पर ‘तारीख पर तारीख’ ही तो मिलती है। एकाधिक स्वयं देश की सबसे बड़ी अदालत भी इस स्थिति पर अपना पीड. और चिंता जता चुकी है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में न्याय मिलने में काफी वक्त लगता है और यह प्रक्रिया काफी खर्चीली है। एक दीवानी मामले के निपटारे पर औसतन 15 वर्ष, तो आपराधिक मामले में पांच से सात वर्ष तक का वक्त लगता है। कई मामलों में तो यह अवधि इससे दुगनी अथवा ज्यादा भी हो सकती है। वर्तमान में तीन करोड़ से अधिक मामले अदालतों में लंबित हैं। (उच्चतम न्यायालय में ही पचास हजार से अधिक मामले लंबित हैं) जबकि न्यायाधीशों के स्वीकृत मात्र लगभग अठारह हजार पदों में से एक चौथाई रिक्त हैं। साधनों की कमी के नाम पर ऐसा होता है। इसीलिए विधि आयोग की रिपोर्ट में इस ओर संकेत किया गया है कि भारत, दुनिया में आबादी एवं न्यायाधीशों के बीच सबसे कम अनुपात वाले देशों में से एक है। अमरीका और ब्रिटेन में 10 लाख लोगों पर करीब 150 न्यायाधीश हैं जबकि भारत में 10 लाख लोगों पर सिर्फ 10 न्यायाधीश हैं। ऐसे में अंतहीन देरी के अतिरिक्त आखिर और क्या संभव है क्योंकि आज भी अंग्रेजों के काल से जारी अनेक नियम जैसे अंग्रेज जज गर्मी में लम्बी छुट्टी पर जाते थे, आज भी जारी है जबकि शेष सरकारी कामकाज हर मौसम में जारी रहता है। आश्चर्य है कि हर छोटे-बड़े मामले में जनहित याचिका के नाम पर अथवा स्वयं संज्ञान लेकर सुनवाई वाले उच्चतम न्यायालय ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि जब गाड़ी से जज साहब के चौम्बर तक हर जगह वातानुकुलित व्यवस्था है तो फिर गर्मी-सर्दी की छुट्टियों का क्या औचित्य है?
माना कि कुछ मामलों में अपरिहार्य कारणों से देरी हो सकती हैं लेकिन अधिकांश मामलों में देरी अनावश्यक है जैसे झारखण्ड में निचली अदालतों में चल रहे कुल तीन लाख मामलों में से एक चौथाई अर्थात् 75 हजार मामलों में पुलिस रिपोर्ट न सौंपने के कारण कार्रवाई आगे नहीं बढ़ पा रही। केंद्र और राज्य सरकारों, स्थानीय निकायों, सार्वजनिक क्षेत्र के प्राधिकरण के बीच चल रहे लाखों मामलों को आपसी तालमेल से निपटाकर अदालतों का बोझ कम किया जा सकता है। इसी प्रकार देश में सर्वाधिक मुकदमे चौक वापसी, मोटर दुर्घटना, औद्योगिक विवादों से संबंधित तथा छुटपुट अपराधों के हैं जिन्हें बहुत आसानी से कुछ बैठकों में निपटाया जा सकता है। एक बार में ही सारे सबूत सौंपने तथा अगली तारीख पर प्रतिवादी द्वारा उसका जवाब अनिवार्य कर मामलें को लम्बा खिंचने से रोका जा सकता है। यदि कोई पक्ष जानबूझकर मामले को लटकाने का प्रयास करता है तो उसका संज्ञान लेते हुए उसके विरुद्ध टिप्पणी की जानी चाहिए। इससे अतिरिक्त कुछ वर्ष पूर्व अदालतों की कार्य प्रणाली में सुधार लाने के लिए आरंभ किए गए उपायों जैसे सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों से सभी जिला अदालतों तक के कम्प्यूटरीकरण और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के बुनियादी ढांचे को उन्नत करने के लिए योजना का कार्य तेजी से बढ़ाया जाना चाहिए। इसके लिए संसाधनों की कमी नहीं होनी चाहिए क्योंकि न्यायविहीनता अशांति को जन्म देती है अतः व्यवस्था बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी ही चाहिए। सांध्यकालीन अदालतें की स्थापना के साथ-साथ सभी को एक ही समय बुलाने की बजाय क्रमबद्ध ढ़ंग से अलग-अलग समय दिया जाए जिससे अदालतों में अनावश्यक भीड़ नहीं होगी और कार्य सुचारू रूप से चलेगा।
अदालती विलंब का एक कारण कई मुद्दों पर संशय भी होता है। ऐसे में यह लगता है कि मानो कानून अस्पष्ट है। अनेक बार उच्च न्यायालय के सामने भी ऐसी अनिश्चितता की स्थिति रहती है तो एक ही अथवा एक जैसे मामलो में अलग-अलग फैसले आते हैं। यहाँ एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। अगर कोई व्यक्ति किसी आपराधिक मामले की शिकायत थाने में करता है तो पुलिस अक्सर एफआइआर दर्ज नहीं करती है, जबकि अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अनुसार कोई शिकायत आती है तो पुलिस के लिए प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है। उच्चतम न्यायालय के इस पर कई फैसले हैं। सात निर्णयों में कहा गया है कि प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है जबकि तीन निर्णयों में इसकी उलटी व्यवस्था दी गई है। स्थिति स्पष्ट करने के लिए 2012 में ललित कुमारी मामले में इसे संविधान पीठ को सौंपा गया है जिसपर निर्णय में विलंब नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह प्रवृति भी देखी जा रही है कि सामान्य मुकद्दमों के लिए बेशक समय न हो पर राजनैतिक मामलों की हर रोज सुनवाई होती है।
कभी-कभी न्याय के साथ किस प्रकार की अजीब स्थितियां होती है उसका एक उदाहरण जेसिका लाल हत्याकांड है जिसमें पैंतीस गवाह मुकर गए तो अभियुक्त बरी हो गए। जब यह मामला उच्च न्यायालय में गया तो न्यायमूर्ति आरएस सोढ़ी ने निर्णय को पलटते हुए न केवल जिला जज पर कठोर टिप्पणी भी की बल्कि मुकरने वाले गवाहों के खिलाफ मुकदमे का आदेश दिया था जिसपर आज तक निर्णय नहीं आया।
उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने पी. रामचंद्र राव बनाम कर्नाटक (2002) मामले में हुसैनआरा मामले की इस बात को दोहराया कि, शीघ्र न्याय प्रदान करना, आपराधिक मामलों में तो और भी अधिक शीघ्र, राज्य का संवैधानिक दायित्व है, तथा संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 21, 19, एवं 14 तथा राज्य के निर्देशक सिद्धांतों से भी निर्गमित न्याय के अधिकार से इंकार करने के लिए धन या संसाधनों का अभाव कोई सफाई नहीं है। विशेषज्ञों का मत है कि जब न्याय तंत्र में जनता का भरोसा कम हो जाता है तो उनमें विवादों के स्वयं निपटान की प्रवृति और सामाजिक अराजकता बढ़ती है इसलिए व्यवस्था को तुरंत सचेत होकर न्याय तंत्र में लोगों का भरोसा तुरंत बहाल करने के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए। फांसी के विरूद्ध अपील के लिए एक निश्चित समय सीमा तय होनी चाहिए तथा उसका पालन न करने वाले के लिए दण्ड का प्रावधान हो, न कि माफी जैसी एक गलत परंपरा की शुरुआत है। अपराधी केवल अपराधी होता है उसका न कोई धर्म है और न ही कोई जाति। अगर उनके लिए न्याय के नाम पर कुछ अलग परम्पराएं कायम की गई तो यह न तो न्याय के हित में नहीं होगा और न ही राष्ट्र हित में।

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